(Under Vidya Bharti Akhil Bhartiya Shiksha Sansthan)

Run By - Saraswati Vidya Mandir Parichalana Samiti, Haflong

Wednesday, 25 November 2015

विद्या भारती का शिक्षा दर्शन

दर्शन, लक्ष्य और उद्देश्य


शैक्षिक चिंतन का अधिष्ठान -- हिन्दू जीवन दर्शन 
1. भारतीय शिक्षा दर्शन का विकास 
विद्या भारती एवं राष्ट्र भक्त शिक्षा शास्त्रियों का यह स्पष्ट मत है कि शिक्षा तभी व्यक्ति एवं राष्ट्र के जीवन के लिए उपयोगी होगी जब वह भारत के राष्ट्रीय जीवन दर्शन पर अधिष्ठित होगी जो मूलतः हिन्दू जीवन दर्शन है. अतः विद्या भारती ने हिन्दू जीवन दर्शन के अधिष्ठान पर भारतीय शिक्षा दर्शन का विकास किया है. इसी के आधार पर शिक्षा के उददेश्य एवं बालक के विकास के संकल्पना निर्धारित की है.
2. शिक्षण पद्धति का आधार - भारतीय मनोविज्ञान 
शिक्षा पद्धति का निर्धारण मनोविज्ञान के द्वारा होता है. प्रचलित शिक्षण पद्धति का आधार पश्चीमी देशों में विकसित मनोविज्ञान है जो विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित है. हिन्दू जीवन दर्शन पर आधारित भारतीय शिक्षा दर्शन के अनुसार बालक के सर्वांगीण विकास की अवधारणा विशुद्ध आध्यात्मिक है. परिपूर्ण मानव के विकास के संकल्पना पश्चिमी मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षण पद्धति के द्वारा पूर्ण होना कदापि संभव नहीं है. अतः विद्या भारती ने भारतीय मनोविज्ञान का विकास किया है और उसी पर अपनी शिक्षण पद्धति को आधारित किया है तथा उसका नामकरण 

"सरस्वती पंचपदीय शिक्षण विधि" किया है.
उसके पांच पद हैं :-
१- अधीति,
२. बोध,
३. अभ्यास,
४. प्रसार-स्वाध्याय एवं प्रवचन. प्राथमिक स्तर पर "सरस्वती शिशु मंदिर शिक्षण पद्धति" तथा
5. पूर्व प्राथमिक स्तर पर "शिशु वाटिका शिक्षण पद्धति" के नाम से इसे शिक्षा जगत में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई. 

पांच आधारभूत विषय 
शारीरिक शिक्षा
बालक बलवान बनेबलिष्ठ बनेअच्छा खिलाड़ी बनेउसकी शारीरिक क्षमताओं का विकास होऐसा बालक ही देश और धर्म की रक्षा कर सकेगा. विद्या भारती के सभी विद्यालयों में सभी बालक शारीरिक दृष्टि से विकास करेंयह प्रयास एवं व्यवस्था की जाती है. इसी दृष्टि से कक्षानुसार शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम विशेषज्ञों ने बनाया है. शारीरिक शिक्षा का विशेष प्रशिक्षण देने के लिए क्षेत्रशः केंद्र स्थापित किये गए हैं. विद्या भारती राष्ट्रीय खेल-कूद परिषद् का गठन किया जा रहा है.
योग शिक्षा
योग विद्या भारती की प्राचीन विद्या है. विश्व भर में इसको अपनाया जा रहा है. विद्या भारती का प्रयत्न है कि हमारे सभी बालक-बालिकाएं योगाभ्यासी बनें. योग के अभ्यास से शारीरिकमानसिकबौद्धिक और आध्यात्मिक विकास उत्तम रीति से होता है - यह विज्ञान से एवं अनुभव से सिद्ध है. प्रत्येक प्रदेश एवं क्षेत्र में योग शिक्षा केंद्र स्थापित किये हैं. जहाँ प्रयोग एवं आचार्य प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलते हैं. एक राष्ट्रीय स्तर पर भी योग शिक्षा संस्थान स्थापित करने की योजना विचाराधीन है.
नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा
बालक देश के भावी कर्णधार हैं. उनके चरित्र बल पर ही देश कि प्रतिष्ठा एवं विकास आधारित है. अतः नैतिकताराष्ट्रभक्ति आदि मूल्यों की शिक्षा और जीवन के आध्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास करने हेतु विद्या भारती ने यह पाठ्यक्रम बनाया है. यह समस्त शिक्षा प्रक्रिया का आधार विषय है. भारतीय संस्कृतिधर्म एवं जीवनादर्शों के अनुरूप बालकों के चरित्र का निर्माण करना विद्या भारती की शिक्षा प्रणाली का मुख्य लक्ष्य है
संस्कृत भाषा
संस्कृत भाषा की ही नहीं विश्व कि अधिकांश भाषाओँ की जननी है. संस्कृत साहित्य में भारतीय संस्कृति एवं भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की निधि भरी पड़ी है. संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना उससे हमारे छात्र अपरिचित रहेंगे. संस्कृत भारत की राष्ट्रीय एकता का सूत्र भी है. विद्या भारती ने इसी कारण संस्कृत भाषा के शिक्षण को अपने विद्यालय में महत्वपूर्ण स्थान दिया है. विद्या भारती संस्कृत विभाग कुरुक्षेत्र में स्थित है. इस विभाग ने सम्भाषण पद्धति के आधार पर "देववाणी संस्कृतम" नाम से पुस्तकों का प्रकाशन भी किया है. संस्कृत के आचार्यों का प्रशिक्षण कार्यक्रम भी इस विभाग के द्वारा संचालित होता है.
संगीत शिक्षण
संगीत वह कला है जो प्राणी के हृदय के अंतरतम तारों को झंकृत कर देती है. उदात्त भावनाओं के जागरण एवं संस्कार प्रक्रिया के माध्यम के रूप में संगीत का शिक्षण विद्या भारती के सभी विद्यालयों में सारे देश में चलता है. उच्च स्तर के गीत कैसेट तैयार कराए गए हैं. राष्ट्र भक्ति के गीतों का स्वर पूरे भारत में गूंजता है. जन्मदिवस के उत्सव हेतु गीत-कैसेट तैयार कराया है जो घर-घर में बजता है. संगीत शिक्षण का कक्षानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित है. सभी भारतीय भाषाओँ में गीत छात्रों में प्रचलित हैं. भाषायें भिन्न हैं किन्तु भाव एक हैं. यह अनुभूति होती है


शिक्षाशास्त्र

शिक्षाशास्त्र



शिक्षण-कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन शिक्षाशास्त्र या शिक्षणशास्त्र (Pedagogy) कहलाता है। इसमें अध्यापन की शैली या नीतियों का अध्ययन किया जाता है। शिक्षक अध्यापन कार्य करता है तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि अधिगमकर्ता को अधिक से अधिक समझ मे आवे।

शिक्षा एक सजीव गतिशील प्रक्रिया है। इसमें अध्यापक और शिक्षार्थी के मध्य अन्त:क्रिया होती रहती है और सम्पूर्ण अन्त:क्रिया किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होती है। शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षाशास्त्र के आधार पर एक दूसरे के व्यक्तित्व से लाभान्वित और प्रभावित होते रहते हैं और यह प्रभाव किसी विशिष्‍ट दिशा की और स्पष्ट रूप से अभिमुख होता है। बदलते समय के साथ सम्पूर्ण शिक्षा-चक्र गतिशील है। उसकी गति किस दिशा में हो रही है? कौन प्रभावित हो रहा है? इस दिशा का लक्ष्य निर्धारण शिक्षाशास्त्र करता है।
शिक्षण के सिद्धान्त

प्रत्येक अध्यापक की हार्दिक इच्छा होती है कि उसका शिक्षण प्रभावपूर्ण हो। इसके लिये अध्यापक को कई बातों को जानकर उन्हे व्यवहार में लाना पड़ता है, यथा - पाठ्यवस्तु का आरम्भ कहां से क्या जाय, किस प्रकार किया जाय, छात्र इसमें रुचि कैसे लेते रहें, अर्जित ज्ञान को बालकों के लिये उपयोगी कैसे बनाया जाय, आदि। शिक्षाशात्रियों ने अध्यापकों के लिये इन आवश्यक बातों पर विचार करके अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

(१) क्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त

बालक स्वभावतः ही क्यियाशील होते हैं। निष्क्रिय बैठे रहना उनकी प्रकृति के विपरीत है। उन्हे अपने हाथ, पैर व अन्य इन्द्रियों को प्रयोग में लाने में अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वयं करने की क्रिया द्वारा बालक सीखता है। इस प्रकार से प्राप्त किया हुआ ज्ञान अथवा अनुभव उसके व्यक्तित्व का स्थाई अन्ग बन कर रह जाता है। अतः अध्यापक का अध्यापन इस प्रकार होना चाहिए जिससे बालक को 'स्वयं करने द्वार सीखने' के अधिकाधिक अवसर मिलें।

(२) जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त

अपने जीवन से सम्बन्धित वस्तुओं का ज्ञान का ज्ञान प्राप्त करना बालकों की स्वाभाविक रुचि होती है। अतः पाठ्यवस्तु में जीवन से सम्बन्धित तथ्यों को ही शामिल करना चाहियेर्थात् वास्तविक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से लिये गये तथ्यों को ही शामिल करना चाहिये। यदि अध्यापक काल्पनिक अथवा जीवन से असम्बन्धित तथ्यों को ही पढ़ाना चाहेगा तो छात्रों की रुचि उससे हट जायेगी।

(३) हेतु प्रयोजन का सिद्धान्त

जब तक बालकों को पाठ का हेतु अथवा उद्देश्य पूर्णतया ज्ञात नहीं होता है, वे उसमे, न् ध्यान नहीं दे सकते। केवल पाठ का उद्देश्य जान लेने से भी कम नहीं चलता। यदि पाठ का उद्देश्य बालकों की रुचि को प्रेरणा देने वाला हुआ तो उनका पूरा ध्यान उस पाठ को सीखने में लगता है।

(४) चुनाव का सिद्धान्त

मनुष्य का जीवनकाल अत्यन्त कम है और् ज्ञान का विस्तार असीम है। अटः पाठ्य सामग्री में संसार की अपार ज्ञानराशि में से अत्यन्त उपयोगी वस्तुओं को चुनकर रखा जाना चाहिये।

(५) विभाजन का सिद्धान्त

सम्पूर्ण पाठ्यवस्तु बालक के सम्मुख एकसाथ नहीं प्रस्तुत की जा सकती। उसे उचित खण्डों, अन्वितियों, अथवा इकाइयों में विभक्त किया जाना चाहिये। अन्वितियां ऐसी हों जैसी कि सीढ़ियां होती हैं। इन्हें जैसे-जैसे बालक पार पार करता जाये, वह उन्नति करता ज्ज्ये।

(६) पुनरावृत्ति का सिद्धान्त

बालक किसी पाठ्यवस्तु अथवा ज्ञान को अपने मस्तिष्क में ठोस प्रकार से तभी जमा कर सकता है जब बार-बार उसकी आवृत्ति करायी जाय।

भारतीय शिक्षा दर्शन

शिक्षा दर्शन



शिक्षा का क्या प्रयोजन है और मानव जीवन के मूल उद्देश्य से इसका क्या संबंध है, यही शिक्षा दर्शन का विजिज्ञास्य प्रश्न है। चीन के दार्शनिक मानव को नीतिशास्त्र में दीक्षित कर उसे राज्य का विश्वासपात्र सेवक बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य मानते थे। प्राचीन भारत में सांसारिक अभ्युदय और पारलौकिक कर्मकांड तथा लौकिक विषयों का बोध होता था और परा विद्या से नि:श्रेयस की प्राप्ति ही विद्या के उद्देश्य थे। अपरा विद्या से अध्यात्म तथा रात्पर तत्व का ज्ञान होता था। परा विद्या मानव की विमुक्ति का साधन मान जाती थी। गुरुकुलों और आचार्यकुलों में अंतेवासियों के लिये ब्रह्मचर्य, तप, सत्य व्रत आदि श्रेयों की प्राप्ति परमाभीष्ट थी और तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय प्राकृतिक विषयों के सम्यक् ज्ञान के अतिरिक्त नैष्ठिक शीलपूर्ण जीवन के महान उपस्तंभक थे। भारतीय शिक्षा दर्शन का आध्यात्मिक धरातल विनय, नियम, आश्रममर्यादा आदि पर सदियों तक अवलंबित रहा।

प्राचीन भारतीय शिक्षा दर्शन

जीवन-दर्शन और शिक्षा-दर्शन के मध्य वैषम्य की कोई कल्पना नहीं की जा सकती है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। जीवन-दर्शन की दृष्टि से प्राचीन भारतीय दर्शन के विभिन्न कालों के बीच गहरी रेखायें नहीं खींची जा सकती हैं। प्राचीन भारत की संस्कृति शाश्वत और सतत् रही है, अविभाज्य रही है। विद्वानों ने वैदिक संस्कृति से महाकाव्य (रामायण और महाभारत) कालीन संस्कृति में प्राथक्य स्थापित करने के प्रयत्न किये हैं; किन्तु बाद वाले काल में भी वैदिक संस्कृति और जीवन शैली का स्पष्ट प्रभाव है; साम्य भी है। वैदिक जीवन शैली महाकाव्यकालीन जीवन शैली में प्राचुर्य है। यह सत्य है कि रामायण और महाभारत में वर्णित कुछ जीवन पद्धतियाँ वैदिक काल में नहीं हैं। अत: वेदकालीन जीवन-दर्शन का अस्तित्व पृथक से स्वीकार किया जा सकता है। इसी तारतम्य में यदि हम महाकाव्यकालीन युग का पृथक अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं तब भी वैदिक संस्कारों का युग में भी विद्यमान होना स्वीकार करना ही होगा।

इस परिप्रेक्ष्य में प्राचीन भारत के इतिहास को एक इकाई के रूप में होना चाहिए। इसी तारतम्य में प्राचीन भारतीय शिक्षा-दर्शन को भी सर्वप्रथम एक इकाई के रूप में ही मान्य किया जाना चाहिए। यह हो सकता है कि सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने के लिए उपर्युक्त दोनों युगों की सीमायें निर्धारित की जायें किन्तु विशेषकर बाद वाले युग में प्रथम युग की इतनी अधिक विशेषतायें विद्यमान हैं कि दोनों युगों के जीवन-दर्शन और शिक्षा-दर्शन पर एक साथ विचार करना भी उपयोगी होगा।

प्राचीन भारतीय जीवन-दर्शन धर्ममय था। जीवन के सभी कार्यकलाप धर्म से ओत-प्रोत थे, धर्म से नियंत्रित थे। धर्म द्वारा, धर्म के लिए और धर्ममय जीवन शैली प्राचीन भारत की विशेषता थी। वर्तमान जीवन में राजनीति का प्रभुत्व है। धर्म, समाज, अर्थ आदि सभी में राजनीति का प्रवेश है। सभी पर राजनीति हावी है। प्राचीन युग की प्रधानता होने से राजनीति में हिंसा और शत्रुता, द्वेष और ईर्ष्या, परिग्रह और स्वार्थ का बहुल्य न होकर, प्रेम, सदाचार त्याग और अपरिग्रह महत्वपूर्ण थे। उदात्त भावनायें बलवती थीं। दिव्य सिद्धान्त जीवन के मार्गदर्शक थे। सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति प्रधान नहीं था, अपितु वह परिवार और समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ का त्याग करने को तत्पर था। उदात्त वृत्ति की सीमा सम्पूर्ण वसुधा थी। जीवन का आदर्श ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ था। जीवन का उद्देश्य धर्म था। धर्ममय जीवन भौतिक उपलब्धियों से श्रेष्ठ माना जाता था।

प्राचीन भारत का शिक्षा-दर्शन भी धर्म से ही प्रभावित था। शिक्षा का उद्देश्य धर्माचरण की वृत्ति जाग्रत करना था। शिक्षा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए थी। इनका क्रमिक विकास ही शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य था। धर्म का सर्वप्रथम स्थान था। धर्म से विपरीत होकर अर्थ लाभ करना मोक्ष प्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध करना था। मोक्ष जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य था और यही शिक्षा का भी अन्तिम लक्ष्य था। प्राचीन काल में जीवन-दर्शन ने शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित किया था। जीवन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का प्रभाव शिक्षा दर्शन पर भी पड़ा था। उस काल के शिक्षकों, ऋषियों आदि ने चित्त-वृत्ति-निरोध को शिक्षा का उद्देश्य माना था। शिक्षा का लक्ष्य यह भी था कि आध्यात्मिक मूल्यों का विकास हो। उस समय भौतिक सुविधाओं के विकास की ओर ध्यान देना किंचित भी आवश्यक नहीं था क्योंकि भूमि धन-धान्य से पूर्ण थी, भूमि पर जनसंख्या का भार नहीं था। किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं था कि लोकोपयोगी शिक्षा का आभाव था। प्रथमत: लोकोपयोगी शिक्षा परिवार में, परिवार के मध्यम से ही सम्पन्न हो जाती थीं। वंश की परंपरायें थीं और ये परम्परायें पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होती रहती थीं। व्यवसायों के क्षेत्र में प्रतियोगिता नहीं के बराबर थीं। सभी के लिए काम उपलब्ध था। सभी की आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती थीं।

चाहे वैदिक युग में हो अथवा महाकाव्य काल में हो, प्राचीन भारतीय जीवन पद्धति में ऋषिगण समाज के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। वे सभी शिक्षक के समधर्मी थे। वे सदा ही आध्यात्मिक सत्ता के गुण गाते थे। उनका जीवन भौतिकता से मुक्त और आध्यात्मिकता में लिप्त रहता था। समाज को भी वे यही शिक्षा और मार्गदर्शन देते थे। वैदिक काल से प्रारम्भ होकर, महाकाव्य काल में यह जीवन-दर्शन परवान चढ़ा। इस प्रकार प्राचीन काल में भारतीय जीवन-दर्शन पूर्णत: आध्यात्मिक रहा और शिक्षा को भी यही दिशा मिली। गुरु परंपरा अत्यंत ही महत्वपूर्ण रही। वेदों का प्रादुर्भाव भी गुरु परंपरा से ही हुआ। तत्पश्चात भी शिक्षा गुरु परम्परा के माध्यम से ही दी जाती रही।

यद्यपि व्यवसायों का शिक्षण अधिकतर गृह प्रांगण में ही होता था किन्तु गुरु-गृह भी गृहस्थी की शिक्षा के समुन्नत केन्द्र थे। भारत उस काल में भी कृषि प्रधान देश था। कृषि, वनोपज और पशुपालन का शिक्षण प्राय: गुरु-गृह में निवास कर प्राप्त होता था। मानव प्रकृति की गोद से दूर नहीं रहता था। गुरु-गृह अधिकतर बस्तियों से दूर रहते थे। उनमें रहने वाले विद्याभ्यामी प्रकृति के प्रांगण में निवास करते थे, विचरते थे, शिक्षा प्राप्त करते थे और अभ्यास एवं अनुप्रयोग करते थे। चाहे धनवान-पुत्र हो या निर्धन-पुत्र, कृषि कार्य एवं वनवास और वनविचरण के कार्यों एवं प्रवृत्तियों द्वारा शिक्षा प्राप्त करते थे। दोनों ही वर्ग के शिष्यों के लिए ऐसे कार्यों द्वारा श्रम का गौरव आत्मसात करना और व्यवहार में लाना उपयोगी माना जाता था। श्रम का गौरव समाज में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित और महिमा मण्डित था। इसके अतिरिक्त सेवा-कार्य को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। गुरु-गृह में गुरु, गुरु-परिवार तथा सहपाठियों की सेवा को उत्कृष्ठ कार्य माना जाता था। गुरु की गायों की सेवा भी शिष्य का कर्त्तव्य था। गुरुकुल में मानवोपयोगी पशुओं की संख्या सैकड़ों और हजारों में होती थी।

सामूहिकता का अत्याधिक महत्व था। गुरु सैकड़ों की संख्या में गौपालन इसलिए नहीं करता था कि उसे निजी लाभ हो और उसका परिवार भौतिक सुविधायें भोग सके अपितु इस उद्यम का लाभ गुरुकुल में निवास करने वाले सभी शिष्य आदिवासियों को मिलता था। छान्दोग्य उपनिषद् में महासन्त सत्यकाम की कथा का वर्णन है। प्रारम्भ में तो वे गुरु की गौवों की रक्षा में रत रहते थे बाद में उनकी देख-रेख में सहस्त्र गायों का पालन करते थे। विभिन्न प्रकार के दानों में गौदान का सार्वाधिक महत्व था। गौदान को स्वर्णदान से भी अधिक महान माना जाता था। शिक्षा की आर्थिक व्यवस्था में गोधन सर्वोपरि था। गृहस्थाश्रम के लिए उपयुक्त इस शिक्षा की पृष्ठभूमि में वही सिद्धान्त था जिसको वर्तमान में हम ‘क्रिया से शिक्षा’ की संज्ञा देते हैं। उच्चतम शिक्षा में भी ‘शारीरिक श्रम’ और ‘क्रिया’ का अत्याधिक महत्व था। आध्यात्मिक उन्नति में संलग्न ऋषि एवं शिष्य भी शारीरिक श्रम से दूर नहीं रहते थे।

इसका यही अर्थ है कि शिक्षा केवल सैद्धान्तिक नहीं थी। व्यवहार और वास्तविकता का भी शिक्षा से उतना ही गहन संबंध था जितना सैद्धांतिक अध्ययन-अध्यापन का। किसी भी कार्य को छोटा नहीं समझा जाता था। ऋग्वेद में ऐसे उदाहरण हैं कि ऋषि स्वयं कवि थे, उनके पिता चिकित्सक थे, उनकी माता उपल प्रक्षिणी अर्थात् आटा पीसने वाली थी और परिवार के तीनों ही सदस्य शिक्षा दान में कार्यरत थे।

क्रिया द्वारा शिक्षा के लिए जीवन एक प्रयोगशाला के समान था। ऋषि कुल में जीवनयापन के मध्य शिक्षा संबंधी प्रयोग और परीक्षण सम्पन्न होते थे। इन प्रयोगों के आधार पर ही शिक्षाशास्त्र विकसित हुआ था। यहाँ तक शिक्षण विधि का प्रश्न है, श्रवण, मनन और चिंतन, प्रयोग और व्यवहार को समुचित स्थान प्राप्त था। स्मरण शक्ति का यथोचित उपयोग किया जाता था। गुरु परंपरा का महत्व भी अत्यधिक था। यह गुरु परंपरा की ही देन है कि वेद आज तक जीवित हैं। प्राचीन भारतीय शिक्षा का विकास, आध्यात्मिकता, चित्त-वृत्ति-निरोध, लोकोपयोग, गृहस्थ-जीवन-प्रशिक्षण, श्रम की पूजा, कृषि का प्रायोगिक ज्ञान आदि को सम्मिलित कर हुआ था।

ऋषिकुल अथवा गुरुकुल में निवास करने वाले किसी भी शिष्य या उसके परिवार से शुल्क लेने की प्रथा नहीं थी। प्राय: वे आश्रम आत्म-निर्भर होते थे। पशुपालन या कृषि उत्पादन से इन आश्रमों या गुरुकुल का सम्पूर्ण व्यय वहन होता था। अनेक आश्रम ऐसे भी थे जिनके लिए इस प्रकार से व्यय पूर्ति संभव नहीं थी। उनके लिए भिक्षा प्राप्त करने का उपाय था। शिष्यगण और स्वयं गुरु भी भिक्षा माँगने को अधम अथवा हीन नहीं मानते थे। भिक्षा स्वयं माँगने वाले के लिए नहीं होकर समूह के लिए होती थी। वे भिक्षा प्राप्त करने में किसी प्रकार की लज्जा या ग्लानि का अनुभव नहीं करते थे। निर्धन और धनिक दोनों ही प्रकार के परिवारों से आये शिष्य भिक्षा प्राप्ति में समान रूप से भाग लेते थे। ‘एक सब के लिए और सब एक के लिए’ वाले सिद्धान्त पर सम्पूर्ण व्यवस्था आधारित थी।

गुरु भी भिक्षा माँगने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते थे। भिक्षा उनके स्वयं के उदर पोषण या भौतिक सुविधाओं के लिए नहीं होती थी अपितु आश्रम के संचालन और विकास के लिए वे राजा या धनिकों के द्वार पर दान प्राप्त करने के लिए भिक्षु के रूप में उपस्थित होते थे। वे दान में गौएं और स्वर्ण प्राप्त करते थे। जब शिष्य अपने ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति पर अपने परिवार में पहुँचते थे और गृहस्थ का जीवन अपनाते थे तब उन्हें इस भिक्षा की वृत्ति की उपादेयता ज्ञात रहती थी। उनके पास उनका स्वयं का अनुभव होता था कि किस प्रकार उनके शिष्य काल में प्राप्त भिक्षा सर्वाहिताय होती थी। अत: वे मुक्त हृदय से दान देने में पीछे नहीं रहते थे।

ऋषि की ख्याति के अनुरूप आश्रम चयन की सुविधा शिष्य के परिवार को रहती थी किन्तु आश्रम, धनवानों के आश्रम और निर्धनों के आश्रम में बंटे नहीं थे। आश्रम में सभी स्तर के शिष्य एक साथ शिक्षा प्राप्त करते थे। राजा और रंक में किसी प्रकार का भेद नहीं था। सभी एक साथ गुरु की छत्र-छाया में निवास करते थे, विद्याभ्यास करते थे। महाकाव्य काल में संपादिनी ऋषि के आश्रम में कृष्ण और सुदामा राजपुत्र और रंक-पुत्र के एक साथ शिक्षा प्राप्त करने और जीवनपर्यन्त मित्रता निभाने का उदाहरण स्मरणीय है। गुरु का महत्व अत्यधिक था। शिक्षा, शिल्प-केन्द्रित थी। ऋषियों के अपने आश्रम थे। आश्रम उनके ही नाम से विख्यात थे। उनके स्थान निश्चित थे। गुरु परंपरा में एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी आती रहती थी।


अरविन्द की दार्शनिक विचारधारा

श्री अरविन्द के दार्शन का लक्ष्य "उदात्त सत्य का ज्ञान" (Realization of the sublime Truth) है जो "समग्र जीवन-दृष्टि" (Integral view of life) द्वारा प्राप्त होता है। समग्र जीवन-दृष्टि मानव के ब्रह्म में लीन या एकाकार होने पर विकसित होती है। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण द्वारा मानव `अति मानव' (superman) बन जाता है अर्थात् वह सत, रज व तम की प्रवृत्ति से ऊपर उठकर ज्ञानी बन जाता है। अतिमानव की स्थिति में व्यक्ति सभी प्राणियों को अपना ही रूप समझता है। जब व्यक्ति शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से एकाकार हो जाता है तो उसमें दैवी शक्ति (Devine Power) का प्रादुर्भाव होता है।

समग्र जीवन-दृष्टि हेतु अरविन्द ने योगाभ्यास पर अधिक बल दिया है। योग द्वारा मानसिक शांति एवं संतोष प्राप्त होता है। अरविन्द की दृष्टि में योग का अर्थ जीवन को त्यागना नहीं है बल्कि दैवी शक्ति पर विश्वास रखते हुए जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों का साहस से सामना करना है। अरविन्द की दृष्टि में योग कठिन आसन व प्राणायाम का अभ्यास करना भी नहीं है बल्कि ईश्वर के प्रति निष्काम भाव से आत्म समर्पण करना तथा मानसिक शिक्षा द्वारा स्वयं को दैवी स्वरूप में परिणित करना है।

अरविन्द ने मस्तिष्क की धारणा स्पष्ट करते हुए कहा है कि मस्तिष्क के विचार-स्तर चित्त, मनस, बुद्धि तथा अर्न्तज्ञान होते हैं जिनका क्रमश: विकास होता है। अर्न्तज्ञान में व्यक्ति को अज्ञान से संदेश प्राप्त होते हैं जो ब्रह्म ज्ञान के आरम्भ की परिचायक है। अरविन्द ने अर्न्तज्ञान को विशेष महत्त्व दिया है। अर्न्तज्ञान द्वारा ही मानवता प्रगति की वर्तमान दशा को पहुँची है। अत: अरविन्द का आग्रह है कि शिक्षक को अपने शिष्य की प्रतिभा का नैत्यिक-कार्य (routine work) द्वारा दमन नहीं करना चाहिए। वर्तमान शिक्षा पद्धति से अरविन्द का असंतोष इसी कारण था कि उनमें विद्यार्थियों की प्रतिभा के विकास का अवसर नहीं दिया जाता। शिक्षक को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विद्यार्थियों की प्रतिभा के विकास हेतु उनके प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

अरविन्द की मस्तिष्क की धारणा की परिणति `अतिमानस' (supermind) की कल्पना व उसके अस्तित्व में है। अतिमानस चेतना का उच्च स्तर है तथा दैवी आत्म शक्ति का रूप है। अतिमानस की स्थिति तक शनै: शनै: पहुँचना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। अरविन्द के अनुसार भारतीय प्रतिभा की तीन विशेषताएँ हैं- आत्मज्ञान, सर्जनात्मकता तथा बुद्धिमत्ता (spirituality, creativity and intellectuality)। अरविन्द ने देशवासियों में इन्हीं प्राचीन आध्यात्मिक शक्तियों के विकास करने का संदेश देकर भारतीय पुनर्जागरण करना चाहा है। अरविन्द के शब्दों में-

" भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान जैसी उत्कृष्ट उपलब्धि बगैर उच्च कोटि के अनुशासन के अभाव में संभव नहीं हो सकती जिसमें कि आत्मा व मस्तिष्क की पूर्ण शिक्षा निहित है।"

इस प्रकार श्री अरविन्द के दर्शन की चरम परिणति उनके शैक्षिक दर्शन में होती है।

वर्तमान शिक्षा-पद्धति से असन्तोष
प्रत्येक दार्शनिक अंतत: एक शिक्षाविद् होता है क्योंकि शिक्षा, दर्शन का गत्यात्मक पक्ष है। जैसा कि अभी हम देख चुके हैं - अरविन्द के दर्शन की चरम परिणति उनके शिक्षा-दर्शन में हुई है। वे वर्तमान शिक्षा-पद्धति से असन्तुष्ट थे। उनका कहना था-

"सूचनात्मक ज्ञान कुशाग्र बुद्धि का आधार नहीं हो सकता" (information can not be the foundation of intelligence।)।

यह ज्ञान तो नवीन अनुसंधान तथा भावी क्रियाकलापों का आरम्भ मात्र होता है। वे आज की शिक्षा-पद्धति में भारतीय प्रतिभा की तीन विशेषताओं-आध्यात्मिकता, सर्जनात्मकता तथा बुद्धिमत्ता- का ह्रास एवं पतन देखते थे। इस पतन का कारण वे रुग्ण आध्यात्मिकता (diseased spirituality) मानते थे।

अरविन्द की शिक्षा पद्धति की संकल्पना- अरविन्द इस प्रकार की शिक्षापद्धति चाहते थे जो विद्यार्थी के ज्ञान-क्षेत्र का विस्तार करे, जो विद्यार्थियों की स्मृति, निर्णयन शक्ति एवं सर्जनात्मक क्षमता का विकास करे तथा जिसका माध्यम मातृभाषा हो। श्री अरविन्द राष्ट्रीय विचारों के थे, अत: वे शिक्षा-पद्धति को भारतीय परम्परानुसार ढालना चाहते थे। उन्होंने शिक्षा द्वारा पुनर्जागरण का संदेश दिया था। यह पुनर्जागरण तीन दिशाओं की ओर उन्मुख होना चाहिए:-

(१) प्राचीन आध्यात्म-ज्ञान की पुर्नस्थापना;

(२) इस आध्यातम-ज्ञान की दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान व विवेचनात्मक ज्ञान में प्रयोग; तथा

(३) वर्तमान समस्याओं का भारतीय आत्म-ज्ञान की दृष्टि से समाधान की खोज तथा आध्यात्म प्रधान समाज की स्थापना।


भारतीय शिक्षाशास्त्रियों के विचार 


शिक्षा आद्य शंकराचार्य (७८८-८२० ई.), स्वामी दयानन्द (१८२४-१८८३), स्वामी विवेकानन्द (१८७३-१९०२), श्रीमती एनी बेसेण्ट (१८४७-१९३३), गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (१८६१-१९४१), महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय (१८६१-१९४५), महात्मा गाँधी (१८६९-१९४८) और महर्षि अरविन्द (१८७२-१९५०) आदि विचारक आधुनिक भारत के महान शिक्षा-शास्त्री माने जाते हैं। वे अन्य विचारकों द्वारा ग्रहण की हुई भारतीय शिक्षा से सम्बन्धित विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहाँ भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों की मुख्य विचारधारा का अवलोकन किया जायगा और यह भी बतलाने का प्रयत्न किया जायगा कि भारतीय विचारकों के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों में मुख्य पाश्चात्य शिक्षा-दर्शन की छाप कहाँ तक पायी जाती है।

प्रकृतिवाद और भारतीय शिक्षा-शास्त्री 

पाश्चात्य प्रकृतिवाद (naturalism) में अनेक न्यूनताएँ पायी जाती हैं। किन्तु यदि इसे संकुचित भाव से न समझा जाय तो यह विद्यार्थियों के लिए अधिक भावपूर्ण ढंग से सीखने के सहायक हो सकता है। इस प्रकृतिवाद ने निस्सन्देह आधुनिक शिक्षा के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्षों के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान किया है। प्रकृतिवाद का व्यावहारिक रूप प्राय: सभी भारतीय विचारकों के जीवन और कार्य में विद्यमान था।

स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रकृति को ब्रह्या एवं जीव के समान ही सत्य मानते थे और वैदिक युग की शिक्षा के आधार पर आधुनिक शिक्षा का निर्माण करना चाहते थे। वैदिक काल में आम लोग प्रकृति की उपासना करते थे और प्रकृति के अत्यधिक निकट रहते थे। स्वामी दयानन्द के आदर्शों पर चलने वाले गुरुकुलों `प्रकृति की ओर लोटो' के नारे को व्यवह्रत रूप देखा जा सकता है। एक प्रकृतिवादी के समान स्वामी विवेकानन्द ने पुस्तकीय ज्ञान का बहुत बड़ा विरोध किया है। उनके अनुसार शिक्षा में जीवन के व्यावहारिक पक्ष की अवहेलना नहीं होनी चाहिए। जीवन के व्यावहारिक पक्ष से स्वामी विवेकानन्द का अभिप्राय भौतिक समृद्धि अथवा धन-संचय नहीं था, प्रत्युत उन्होंने व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकताओं की नैसर्गिक सन्तुष्टि की ओर संकेत किया है। उन्होंने हमें कृत्रमता पर और अन्धविश्वास से रहित जीवनयापन करने की अनुमति दी है।

बह्रावादी विचारधारा की प्रवर्त्तक मेडम हेलेन पेट्रोव्ना ब्लावाट्स्की की शिष्या श्रीमती एनी बेसेण्ट भारत को ह्रदय से प्यार करती थीं। उन्होंने सन् १८९८ में बनारस में सेण्ट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना करके भारतीय शिक्षा को योगदान दिया है। एनी बेसेण्ड ने हमें स्मरण कराया है कि शारीरिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण शिक्षा है और मानसिक तथा नैतिक क्रियाओं के लिए एक स्वस्थ शारीरिक आधार प्रदान करना उसका लक्ष्य होना चाहिए। सभी क्रियाएँ शरीर पर आधारित होती हैं, इसलिए शिक्षा में इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

टैगोर कहा करते थे कि "विधाता ने हमें नगरों में ईंट एवं गारे के बीच जन्म लेने के उद्देश्य से नहीं बनाया।" वे कहते थे "वृक्ष, पौधे, शुद्ध, वायु, स्वच्छ तालाब आदि बैंचों, श्यामपट्टों, पुस्तकों एवं परीक्षाओं से कम आवश्यक नही हैं।" अपने प्रसिद्ध लेखों (शिक्षा-समस्या) में उन्होंने प्रकृतिवाद का समर्थन किया है। उन्होंने लिखा है, "यदि एक आदर्श विद्यालय की स्थापना करना है तो इसे मानव के निवासस्थान से दूर एकान्त में विस्तृत आकाश के तले, विस्तृत क्षेत्र पर वृक्षों एवं पौधों के बीच में स्थापित करना चाहिए।"

महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय सरल एवं साधु प्रकृति के व्यक्ति थे। वे प्राकृतिक ढंग से जीवनयापन करते थे और लोगों को प्राकृतिक नियमों का अनुसरण करने की सलाह भी दिया करते थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भवननिर्माण के समय भी इस बात का ध्यान रखा गया कि कृत्रिमता न आने पाये और छात्रों को प्रकृति के समीप रहने का अवसर मिले। महात्मा गांधी ने भी बालक की प्राकृतिक शक्तियों के विकास पर बल दिया है। उनके अनुसार, शिक्षा से तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों का विकास है। उन्होंने विद्यार्थियों को शरीर के उपेक्षा मन की अनुमति कभी नहीं दी। सभी प्राकृतिक शक्तियों का विकास प्राकृतिक वातावरण में होता है। गाँधी जी को प्राकृतिक वातावरण से बड़ा प्रेम था। प्राचीन भारतीय महात्माओं की भाँति वे प्रकृति के मध्य में रहना पसन्द करते थे। उनके `आश्रम' प्रकृति की गोद में स्थापित किये गये थे। उन्होंने मनुष्य को भोजन, औषधि, शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में प्रकृति का अनुसरण करने का परामर्श दिया।

एक प्रकृतिवादी के रूप में श्री अरविन्द ज्ञान-प्राप्ति में इन्द्रियों के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्पर्श, स्वाद और मस्तिष्क या मन - ये छ: इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में सहायक होती हैं। मन के अतिरिक्त अन्य सभी इन्द्रियाँ अपनी क्रियाओं के लिए क्रमश: नेत्र, कर्ण, वासिका, त्वचा और जिह्वा-इन शारीरिक अवयवों पर निर्भर होती हैं। अत: इन इन्द्रियों का प्रशिक्षण करना शिक्षा का एक बहुत बड़ा कार्य है। महर्षि अरविन्द के अनुसार, शिक्षक केवल निर्देशक है। उसे बालक को केवल ज्ञान प्राप्ति की विधि से परिचित कराना है क्योंकि बालक स्वत: ज्ञान प्राप्त कर लेगा। उनके अनुसार, शैशवावस्था में बालक का प्रशिक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है और इस अवस्था में सम्पूर्ण शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से जी जानी चाहिए। पाण्डिचेरी में श्री अरविन्द आश्रम में प्राकृतिक नियमों का बड़ा आदर है।

आदर्शवाद और भारतीय शिक्षा-शास्त्री

पाश्चात्य आदर्शवादियों (Idealists) का विश्वास है कि यथार्थता विचारों में ही है। आदर्शवाद पदार्थों की अपेक्षा विचारों पर अधिक बल देता है। पदार्थ से मस्तिष्क अधिक यथार्थ माना जाता है। इसी प्रकार शरीर से आत्मा को अधिक यथार्थ माना जाता है। आदर्शवाद धार्मिक शिक्षा को अस्वीकार नहीं करता है। कुछ आदर्शवादी प्रवृत्तियों की छाप भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के दर्शन में सुगमतापूर्वक पायी जा सकती है।

स्वामी दयानन्द ने गुणवान् बनने के लिए शिक्षा को आवश्यक माना है। उन्होंने ब्रह्मचार्य पर बल दिया है और वे चाहते थे कि नैतिक नियमों को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक आवश्यकतायों की सन्तुष्टि की जाय। उनके अनुसार नैतिक विकास शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। उन्होंने माता-पिता को बालकों में आत्म-नियन्त्रण और अच्छी संगति की आदत का विकास करने का परामर्श दिया।

स्वामी विवेकानन्द ने संसार को शिक्षा का वास्तविक अर्थ यह कहकर बताया है कि शिक्षा मनुष्य में विद्यमान पूर्णता का प्रकाशन है। उन्होंने एकाग्रता को ज्ञान-प्राप्ति का एकमात्र साधन माना है। एकाग्रता की शक्ति का विकास करने के लिए ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है। बालक को एकाग्रता का विकास करने के लिए जिससे अपने व्यक्तिगत लाभों को त्यागकर अपने जीवन को दूरों की सेवा में समर्पित कर दिया हो।

श्रीमती ऐनी बैसेण्ट ने भी ब्रह्मचर्य के आदर्श का समर्थन किया है। उन्हें हिन्दू धर्म से बड़ा प्रेम था और उन्होंने निश्चयपूर्वक कहा कि पश्चिम की शिक्षा पूर्व के लिए आदर्श कभी नहीं बन सकती। शिक्षा का कार्य बालक को अपनी आत्मा का ज्ञान प्रदान करना है जो भौतिक शरीर से अधिक यथार्थ है। भारतीय शिक्षाशास्त्रियों को मानसिक, धार्मिक और नैतिक शिक्षा की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान ब्रह्मवादी थे और आत्म-ज्ञान को शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य मानते थे। वे आदर्शवाद के प्रतीक थे और ईश्वर में विश्वास करते थे। उन्होंने अध्यात्मिक विकास के लिए ललित कलाओं के अध्ययन का समर्थन किया है। उन्होंने एक सार्वभौमिक मस्तिष्क की कल्पना की जो वैयक्तिक मस्तिष्क से उच्च कोटि का होता है। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में प्रेम और सार्वभौमिकता पर बल दिया है। महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे। वे अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति थे और शिक्षा के द्वारा मनुष्य के भाग्य का सुधार करना चाहते थे। उन्हें प्राचीन शैक्षिक विचारधारा से बड़ा प्रेम था और उसे विद्यार्थियों को सिखाना चाहते थे। उन्होंने संस्कृत, भारतीय संस्कृति, भारतीय इतिहास और भारतीय दर्शनशास्त्र के अध्ययन पर बल दिया है। उनके अनुसार शिक्षा से अभिप्राय ईश्वर-विषयक ज्ञान का अनुसन्धान है। महात्मा गाँधी का विश्वास था कि इस संसार में ईश्वर ही अन्तिम वास्तविकता है। मनुष्य को उसे पहचानना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य बालको को ईश्वर को जानने तथा `आत्मा' को पहचानने के योग्य बनाना है। वे धर्म के परिम्परागत रूप का विरोध करते थे और चाहते थे कि बालक धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझें और अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसका अभ्यास करें। उन्होंने नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा की उपेक्षा नहीं की है। महर्षि अरविन्द ने हमें अलौकिक मस्तिष्क की भावना प्रदान की है जो वर्तमान एवं सम्भाव्य स्थितियों, `स्वतन्त्र और सम्बन्धित' तथा `ज्ञान और अज्ञान' के दो गोलाद्धों को मिलाती है। यह एक आदर्शवादी विचार है। वे मस्तिष्क को चार तहों--चित्त, मनस् बुद्धि और सत्य के अन्तर्ज्ञान से युक्त मानते है। उसके अनुसार वास्तविक शिक्षा मनुष्य की आत्मा में प्रवेश करती है और बालक को अपनी बौद्धिक तथा नैतिक क्षमताओं का उच्चतम सीमा तक विकास करने के योग्य बनाती है।

भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विचार प्रकृतिवाद की बेड़ी में जकड़े नहीं है। जहाँ पर उन्होंने प्रकृति से शिक्षा लेने का उपदेश दिया है और प्राकृतिक नियमों का अनुसरण करने की सलाह दी है वहीं पर उन्होंने, प्रकृति के रचयिता की ओर भी संकेत किया है। महामना मालवीय, टैगोर, गांधी, दयानन्द, विवेकानन्द, अरविन्द आदि सभी विचारकों ने ईश्वर में आस्था प्रकट की है और प्रकृति को अन्तिम सत्य न मान कर परम सत्य को सत्, चित् एवं आनन्द के रूप में देखा है। सभी ने अनेकता में एकता के दर्शन किये हैं और `सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' की उपासना में जीवन को सार्थक माना है। उन्होंने जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष मानते हुए आत्मानुभूति पर बल दिया है। इस दृष्टि से सभी भारतीय शिक्षा-सम्बन्धी आदर्शवादी ठहरते हैं। सभी ने पाठ्यक्रम में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानवतावादी विषयों के सम्मिलित किये जाने पर बल दिया है। नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास सभी का लक्ष्य रहा है। चरित्र के उन्नयन में सभी का विश्वास रहा है। सभी ने धार्मिक शिक्षा का समर्थन किया है। सभी के लिए धर्म का बाह्रा पक्ष महत्त्वहीन किन्तु आध्यात्मिक पक्ष महत्वपूर्ण रहा है।

प्रयोजनवाद और भारतीय शिक्षा-शास्त्री 

प्रयोजनवाद (Pragmatism) दर्शन का एक नवीन समप्रदाय है जिसकी उत्पत्ति अमेरिकी जीवन पद्धति से हुई है। फिर भी कुछ प्रयोजनवादी प्रवृत्तियाँ भारतीय विचारकों के शिक्षा सम्बन्धी विचारों में भी सुगमतापूर्वक पायी जा सकती हैं। उदाहरणार्थ, स्वामी दयानन्द देश की सामाजिक आवश्यकताओं से अवसत थे और इन आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा-योजना बनाना चाहते थे। उनके शिक्षा-सम्बन्धी कार्यक्रम में व्यक्ति के व्यावहारिक अनुभव सम्मिलित हैं। स्वामी विवेकानन्द सामूहिक शिक्षा का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि शिक्षा की देश में जनसाधारण की आवश्यकताओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। शिक्षा में जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान देना आवश्यक है। यह शिक्षा निरर्थक है जिसका लक्ष्य बालकों को समाज के लिए उपयोगी बनने के योग्य बनाना नहीं होता है।

श्रीमती ऐनी बेसेण्ट हिन्दू समाज की तत्कालीन दशाओं से प्रसन्न नहीं थीं और उन्होंने समाज से सुधार करने हेतु अपना जीवन समर्पति कर दिया। उन्होंने इस बात का समर्थन किया कि शिक्षा सर्वतोन्मुखी होनी चाहिए। उनके अनुसार बालक में कर्त्तव्य की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए जिससे उसमें सामाजिक चेतना का विकास हो सके और वह अपने माता-पिता, बहिनों और भाइयों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन कर सके।

अमरीकी प्रयोजनवाद का अंग्रेजी संस्करण सामान्यत: `मानववाद' कहलाता है और एक पिछले अध्याय में हम वर्णन कर चुके हैं कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान मानववादी थे। उन्होंने मनुष्य को समस्त वस्तुओं का मापदण्ड माना है। उनका संसृति का सिद्धान्त भी मानवीय था। टैगोर ईश्वर को भी मानव मानते थे।

पण्डित मदन मोहन मालवीय एक व्यावहारिक बुद्धि के व्यक्ति थे। जीवन के प्रति उनका वही मानवतावादी दृष्टिकोण था जो कि प्रयोजनवाद का आधार है। उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं की चेतना थी और वे समाज में सुधार करना चाहते थे। उनके अनुसार, सामाजिक बुराइयों का कारण हिन्दूत्व के कुछ सांस्कृतिक आदर्शों की अवहेलना थी। इसलिए उन्होंने हिन्दूत्व के लिए कार्य किया और अपने शिक्षा-सम्बन्धी विचारों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।

महात्मा गांधी निस्सन्देह एक आदर्शवादी थे और `परम शक्ति' में उनका दृढ़ विश्वास था। किन्तु उन्होंने जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को सत्य के साथ एक प्रयोग माना है। प्रयोग और अनुभव प्रयोजनवाद के आधारभूत तत्त्व हैं। उन्होंने केवल उन्हीं सिद्धान्तों का समर्थन किया जिनको उन्होंने स्वयं कार्यरूप में परिणत किया। इस दृष्टिकोण से उन्हें एक प्रयोजनवादी भी कहा जा सकता है। महर्षि अरविन्द घोष सार्वभौमिक मस्तिष्क में विश्वास करते थे और हार्दिक भाव से आदर्शवादी थे किन्तु उन्होंने कभी भी अपने आदर्शवाद के व्यावहारिक पक्ष को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा। उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों पर आधारित होना चाहिए और वास्तविक जीवन में उनके लिए उपयोगी होना चाहिए। शिक्षा-योजना में शिक्षक का स्थान निर्देशक और मित्र के रूप में होना चाहिए। उनका यह विचार प्रयोजनवादियों के विचारों से मिलता-जुलता है।

संकलनवाद (Eclecticism) और भारतीय शिक्षा-शास्त्री 

भारतीय राष्ट्रीय चरित्र के बिल्कूल अनुकूल, समकालीन भारतीय शिक्षा और शिक्षा-दर्शन की प्रकृति संश्लेषक है। हम शिक्षा के सभी क्षेत्रों में निस्सन्देह आदर्शवादी दर्शन के समर्थक हैं। किन्तु यह आदर्शवादी दृष्टिकोण समय-समय पर अनेक और विविध प्रकार के दार्शनिक विचारों से प्रभावित हुआ है।

समकालीन परिवर्तनों के कारण राष्ट्रीय चरित्र इतना शीघ्र परिवर्तनशील है। विज्ञान पर आधारित आधुनिक उद्योगों के आगमन और साथ में तीव्र सामाजिक परिवर्तनों के कारण शैक्षिक समस्याओं में बहुत से परिवर्तन हुए हैं। किन्तु परिवर्तनशील संसार में केवल जीविकोपार्जन की विधि सीखना ही शिक्षा का लक्ष्य नहीं हो सकता। शैक्षिक उद्देश्य के अन्तर्गत इससे अधिक अपेक्षाएँ हैं। कुछ लोगो की धारणा है कि बालकों को परिवर्तनशील समय के लिए प्रशिक्षित करने का एकमात्र मार्ग उन्हें ऐसी शिक्षा प्रदान करना है जो स्वत: "विकासशील" है। उदाहरणार्थ, डीवी का आदेश है कि मनुष्य को सदैव अपने परिवर्तनशील वातावरण के प्रति जागरूक तथा उस वातावरण के द्वारा सतत् उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान में क्रियाशील होना चाहिए। कुछ अन्य लोग ऐसे हैं जिनकी धारणा है कि मौलिक एवं चिरन्तन सत्य को केन्द्रबिन्दु मानकर बनायी गयी अध्ययन कि योजना उच्च परिमाण का स्थायित्व प्रदान करती है, प्रत्युत मानवता के लिए प्रत्याशी है। इसके अतिरिक्त यह मानते हुए कि हम विशुद्ध और दृढ़ आदर्शवादी हैं, हम भारतवासियों का आदर्शवादी सिद्धान्त एक विस्तृत और सर्वव्यापी सिद्धान्त है। इसके अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदाय सम्मिलित हैं और इस प्रकार इस सिद्धान्त को सदैव प्रबल अतिवादी रूप में, कभी भी नहीं सराहा गया है। वह व्यक्ति और समाज के आध्यात्मिक उन्नयन का सबल आधार रहा है। प्रयोनावाद भी अपने अतिवादी रूप में अनिश्चित दिशा की ओर सदा प्रगति करते रहने का सन्देश देता है। भारतीय शिक्षा-शास्त्री प्रयोनावादी की भाँति प्रगति का सन्देश तो देते हैं किन्तु व्यक्ति व समाज की जीवन-नौका को अस्पष्ट दिशा की ओर न संचालित कर सुनिश्चित दिशा की ओर संचालित करने का परामर्श देते हैं। पश्चिमी यथार्थवादियों ने जगत् के ठोस एवं यथार्थ धरातल पर रहने का संदेश दिया है। यथार्थवादी विचारक व्यावहारिक जगत् की उपेक्षा सहन नहीं करता। भारतीय दार्शिनिकों ने भी जगत् की व्यावहारिक सत्ता स्वीकार की है। जगत् को माया मानने वाले आचार्य शंकर ने भी जगत् को व्यावहारिक दृष्टि से सत्य माना है। भारतीय विचारक मानते हैं कि शास्त्रों में कुशल होते हुए भी लोग व्यवहार से पृथक् पुरुष मूर्ख होता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि भारतीय शिक्षा-शास्त्री लोकव्यवहार को नितान्त सत्य नहीं मानते। एक सीमा तक ही इसकी सत्ता है। आध्यात्मिकता की कीमत चुका कर लौकिकता उन्हें ग्रह्या नहीं। इस लौकिक जगत् के मल्यांकन का मानदण्ड उन्होंने आध्यात्मिक उन्नयन को ही माना है। अत: भारतीय शिक्षा-शास्त्री यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर भी यथार्थवाद की भूमि से बहुत ऊपर उठ जाता है।

प्रयोजनवाद, आदर्शवाद एवं प्रकृतिवाद के बीच की कड़ी है। जो व्यक्ति प्रकृतिवादी है वह प्रयोजनवादी अथवा आदर्शवादी नहीं हो सकता। किन्तु जो व्यक्ति यथार्थवाद तक के मार्ग पर चलता है उसे बीच ने प्रयोजनवाद को कहीं न कहीं पार करना पड़ता है। प्रकृतिवाद से आदर्शवाद तक की दूरी तय करने में प्रयोजनवाद मार्ग में आता ही है। इस दृष्टि से सभी भारतीय शिक्षा-शास्त्री किसी न किसी रूप में प्रयोजनवादी कहे जा सकते हैं। महात्मा गांधी में तो अपने सम्पूर्ण तत्त्व हैं। अपनी पुस्तक `महात्मा गांधी का शिक्षा-दर्शन' में डा एम एस पटेल ने जो विचार गांधी के विषय में व्यक्त किये हैं वे अन्य भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों के विषय में भी पर्याप्त मात्रा में लागू होते हैं। डा। पटेल पहले लिखते हैं। "गांधी जी के दर्शन का सावधानी के साथ अध्ययन करे पर यह स्पष्ट हो जायगा कि उनके शिक्षादर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद एवं प्रयोजनवाद सहायक हैं -- गांधी जी का शिक्षा-दर्शन पर्याप्त मात्रा में प्रकृतिवादी है। जब यह बालक की प्रकृति का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करता है और इसके अध्ययन पर बल देता है। गांधी जी का शिक्षा-दर्शन अपने स्थापन में प्रकृतिवादी, अपने उद्देश्य में आदर्शवादी और कार्य की योजना तथा पद्धति में प्रयोजनवादी है-- एक शिक्षा दार्शनिक के रूप में गांधी जी की महत्ता इस तथ्य में है कि उनके दर्शन में प्रकृतिवादी, आदर्शवादी एवं प्रयोजनवादी प्रवृत्तियाँ पृथक् एवं स्वतन्त्र न होकर एक हो गयी हैं और उनका विकास एक शिक्षा-सिद्धान्त के रूप में हुआ है जो आज की आवश्यकताओं के अनुकूल होगा तथा मनुष्य की आत्मा की पवित्रतम आकांक्षाओं को सन्तुष्ट करेगा।

शिक्षा मनोविज्ञान

शिक्षा मनोविज्ञान




शैक्षिक मनोविज्ञान (Educational psychology) मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें इस बात का अध्ययन किया जाता है कि मानव शैक्षिक वातावरण में सीखता कैसे है तथा शैक्षणिक क्रियाकलाप अधिक प्रभावी कैसे बनाये जा सकते हैं।
शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषाएँ :
स्किनर के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार का शैक्षणिक परिस्थितियों में अध्ययन करता है।
क्रो एंड क्रो के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञानव्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक सीखने के अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है।
जेम्स ड्रेवर के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान व्यावहारिक मनोविज्ञान की वह शाखा है जो शिक्षा में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतो तथा खोजों के प्रयोग के साथ ही शिक्षा की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक अध्यन से सम्बंधित है।
ऐलिस क्रो के अनुसार : शैक्षिक मनोविज्ञान मानव प्रतिक्रियाओं के शिक्षण और सीखने को प्रभावित वैज्ञानिक दृष्टि से व्युत्पन्न सिद्धांतों के अनुप्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है।

शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र
शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के बारे में स्किनर ने लिखा हे की शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में वह सभी ज्ञान तथा प्रविधियां से सम्बंधित है जो सीखने की प्रक्रिया को अच्छी प्रकार से समझाने तथा अधिक निपुणता से निर्धारित करने से सम्बंधित हैं। आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञानिकों के अनुसार शिक्षा मनोविज्ञान के प्रमुख क्षेत्र निम्न प्रकार है-
1. वंशानुक्रम (Heredity)
2. विकास (Development)
3. व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences)
4. व्यक्तित्व (Personality)
5. विशिष्ट बालक (Exceptional Child)
6. अधिगम प्रक्रिया (Learning Process)
7. पाठ्यक्रम निर्माण (Curriculum Development)
8. मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)
9. शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
10. निर्देशन एवं परामर्श (Guidance and Counseling)
11. मापन एवं मूल्यांकन (Measurement and Evaluation)
12. समूह गतिशीलता (Group Dynamics)
13. अनुसन्धान (Research)
14. किशोरावस्था (Adolescence)


मनोविज्ञान का शिक्षा के साथ संबंध
1. मनोविज्ञान तथा शिक्षा के उद्देश्य मनोविज्ञान के द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है अथवा नहीं। शिक्षक ने अपने उद्देश्य में कितनी सफलता प्राप्त की है यह भी मनोविज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है।
2. मनोविज्ञान तथा पाठ्यक्रम मनोविज्ञान ने बालक के सर्वागींण विकास में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को महत्वपूर्ण बनाया है। इसीलिये विद्यालयों में खेलकूदसांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की विषेष रूप से व्यवस्था की जाती है।
3. मनोविज्ञान तथा पाठ्य पुस्तकें पाठ्य पुस्तकों का निर्माण बालक की आयुरूचियों और मानसिक योग्यताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिये।
4. मनोविज्ञान तथा समय सारणी शिक्षा में मनोविज्ञान द्वारा दिया जाने वाला मुख्य सिद्धान्त है कि नवीन ज्ञान का विकास पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिये।
5. मनोविज्ञान तथा शिक्षा विधियां मनोविज्ञान के द्वारा षिक्षण विधियों में बालक केस्वयं सीखने पर बल दिया गया। इस उद्देश्य से करके सीखना’, खेल द्वारा सीखनारेड़ियो पर्यटनचलचित्र आदि को षिक्षण विधियों में स्थान दिया गया।
6. मनोविज्ञान तथा अनुशासन मनोविज्ञान द्वारा प्रेमप्रषंसा और सहानुभूति को अनुषासन के लिये एक अच्छा आधार माना है।
7. मनोविज्ञान तथा अनुसंधान मनोविज्ञान ने सीखने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में खोज करके अनेक अच्छे नियम बनायें हैं। इनका प्रयोग करने से बालक कम समय में और अधिक अच्छी प्रकार से सीख सकता है।
8. मनोविज्ञान तथा परीक्षायें मनोविज्ञान द्वारा बुद्धि परीक्षाव्यक्तित्व परीक्षा तथा वस्तुनिष्ठ परीक्षा जैसी नई विधियों को मूल्यांकन के लिये चयनित किया गया है।
9. मनोविज्ञान तथा अध्यापक शिक्षा में तीन प्रकार के सम्बन्ध होते हैं - बालक तथा षिक्षक का सम्बन्ध,बालक और समाज का सम्बन्ध तथा बालक और विषय का सम्बन्ध। शिक्षा में सफलता तभी मिल सकती है जब इन तीनों का सम्बन्ध उचित हो।


मनोविज्ञान का शिक्षा में योगदान
1. बालक का महत्व
2. बालकों की विभिन्न अवस्थाओं का महत्व
3. बालकों की रूचियों व मूल प्रवृत्तियों का महत्व
4. बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का महत्व
5. पाठ्यक्रम में सुधार
6. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं पर बल
7. सीखने की प्रक्रिया में उन्नति
8. मूल्यांकन की नई विधियां
9. शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति व सफलता
10. नये ज्ञान का आधारपूर्ण ज्ञान

शिक्षा मनोविज्ञान : परिभाषा एवं आवश्यकता
शिक्षा मनोविज्ञान वह विधायक विज्ञान है जो शिक्षा की समस्याओं का विवेचन विश्लेषण एवं समाधान करता है।
शिक्षा मनोविज्ञान से कभी पृथक नहीं रही है। मनोविज्ञान चाहे दर्शन के रूप में रहा होउसने शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का विकास करने में सहायता की है।
शिक्षा मनोविज्ञान के आरंभ के विषय में लेखकों में कुछ मतभेद है। कोलेसनिक ने इस विज्ञान का आरंभ ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी के यूनानी दार्शनिको से माना हैउनमें प्लेटो को भी स्थान दिया है। कोलेसनिक के शब्दों में-
‘‘मनोविज्ञान और शिक्षा के सर्वप्रथम व्यवस्थित सिद्धांतों में एक सिद्धांत प्लेटों का भी था।’’
कोलेसनिक के विपरीत स्किनर ने शिक्षा मनोविज्ञान का आरंभ प्लेटो के शिष्य अरस्तु के समय से मानते हुए लिखा है
‘‘शिक्षा मनोविज्ञान का आरंभ अरस्तु के समय से माना जा सकता है। पर शिक्षा मनोविज्ञान की उत्पत्ति यूरोप में पेस्त्रला जीहरबर्ट और फ्राबेल के कार्यों से हुई जिन्होंने शिक्षा को मनोवैज्ञानिक बनाने का प्रयास किया।’’स्किनर के शब्दोंमें ‘‘शिक्षा मनोविज्ञानमनोविज्ञान की वह शाखा है जिसका संबंध पढ़ने व सीखने से है।’’
शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ
शिक्षा मनोविज्ञानमनोविज्ञान के सिद्धांतों का शिक्षाके क्षेत्र में प्रयोग है। स्किनर के शब्दों में ‘‘शिक्षा मनोविज्ञान उन खोजों को शैक्षिक परिस्थितियों में प्रयोग करता है जो कि विशेषतया मानवप्राणियों के अनुभव और व्यवहार से संबंधित है।’’
शिक्षा मनोविज्ञान दो शब्दों के योग से बना है - शिक्षा’ और मनोविज्ञान। अतः इसका शाब्दिक अर्थ है - शिक्षा संबंधी मनोविज्ञान। दूसरे शब्दों मेंयह मनोविज्ञान का व्यावहारिक रूप है और शिक्षा की प्रक्रिया में मानव व्यवहार का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। अतः हम स्किनर के शब्दों में कह सकते है
‘‘शिक्षा मनोविज्ञान अपना अर्थ शिक्षा सेजो सामाजिकप्रक्रिया है और मनोविज्ञान सेजो व्यवहार संबंधी विज्ञान हैग्रहण करता है।’’
शिक्षा मनोविज्ञान के अर्थ का विश्लेषण करने के लिए स्किनर ने अधोलिखित तथ्यों की ओर संकेत किया हैः-
1. शिक्षा मनोविज्ञान का केन्द्रमानव व्यवहार है।
2. शिक्षा मनोविज्ञान खोज और निरीक्षण से प्राप्त किए गए तथ्यों का संग्रह है।
3. शिक्षा मनोविज्ञान में संग्रहीत ज्ञान को सिद्धांतों का रूप प्रदान किया जा सकता है।
4. शिक्षा मनोविज्ञान ने शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने के लिए अपनी स्वयं की पद्धतियों का प्रतिपादन किया है।
5. शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धांत और पद्धतियां शैक्षिक सिद्धांतों और प्रयोगों को आधार प्रदान करते है।
आवश्यकता
कैली ने शिक्षा मनोविज्ञान की आवश्यकता को निम्नानुसार बताया हैः-
1. बालक के स्वभाव का ज्ञान प्रदान करने हेतु।
2. बालक के वृद्धि और विकास हेतु।
3. बालक को अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने के लिए।
4. शिक्षा के स्वरूपउद्देश्यों और प्रयोजनों से परिचित करना।
5. सीखने और सिखाने के सिद्धांतों और विधियों से अवगत कराना।
6. संवेगों के नियंत्रण और शैक्षिक महत्व का अध्ययन।
7. चरित्र निर्माण की विधियों और सिद्धांतों से अवगत कराना।
8. विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों में छात्र की योग्यताओं का माप करने की विधियों में प्रशिक्षण देना।
9. शिक्षा मनोविज्ञान के तथ्यों और सिद्धांतों की जानकारी के लिए प्रयोग की जाने वाली वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान प्रदान करना।
शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र
विभिन्न लेखकों ने शिक्षा मनोविज्ञान की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी है। इसलिए शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा मनोवैज्ञानिक एक नया तथा पनपता विज्ञान है। इसके क्षेत्र अनिश्चित है और धारणाएं गुप्त है। इसके क्षेत्रों में अभी बहुत सी खोज हो रही है और संभव है कि शिक्षा मनोविज्ञान की नई धारणाएंनियम और सिद्धांत प्राप्त हो जाये। इसका भाव यह है कि शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र और समस्याएं अनिश्चित तथा परिवर्तनशील है। चाहे कुछ भी हो निम्नलिखित क्षेत्र या समस्याओं को शिक्षा मनोविज्ञान के कार्य क्षेत्र में शामिल किया जा सकता है। क्रो एण्ड क्रो- ‘‘शिक्षा मनोविज्ञान की विषय सामग्री का संबंध सीखने को प्रभावित करने वाली दशाओं से है।’’
1. व्यवहार की समस्या।
2. व्यक्तिगत विभिन्नताओं की समस्या।
3. विकास की अवस्थाएं।
4. बच्चों का अध्ययन।
5. सीखने की क्रियाओं का अध्ययन।
6. व्यक्तित्व तथा बुद्धि।
7. नाप तथा मूल्यांकन।
8. निर्देश तथा परामर्श।
शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ
शिक्षा मनोविज्ञान को व्यवहारिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाने लगा है। विज्ञान होने के कारण इसके अध्ययन में भी अनेक विधियों का विकास हुआ। ये विधियां वैज्ञानिक हैं। जार्ज ए लुण्डबर्ग के शब्दों में -
‘‘सामाजिक वैज्ञानिकों में यह विश्वास पूर्ण हो गया है कि उनके सामने जो समस्याऐं है उनको हल करने के लिए सामाजिक घटनाओं के निष्पक्ष एवं व्यवस्थित निरीक्षणसत्यापनवर्गीकरण तथा विश्लेषण का प्रयोग करना होगा। ठोस एवं सफल होने क कारण ऐसे दृष्टिकोण को वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है।’’
शिक्षा मनोविज्ञान में अध्ययन और अनुसंधान के लिए सामान्य रूप से जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है उनको दो भागों में विभाजित किया जासकता हैः-
(१) आत्मनिष्ठ विधियाँ (Subjective Method)
आत्मनिरीक्षण विधि
गाथा वर्णन विधि
(२) वस्तुनिष्ठ विधियाँ (Objective Method)
प्रयोगात्मक विधि
निरीक्षण विधि
जीवन इतिहास विधि
उपचारात्मक विधि
विकासात्मक विधि
मनोविश्लेषण विधि
तुलनात्मक विधि
सांख्यिकी विधि
परीक्षण विधि
साक्षात्कार विधि
प्रश्नावली विधि
विभेदात्मक विधि
मनोभौतिकी विधि